सामान्य तौर पर जब कोई बीमारी पैदा करने वाला कीटाणु शरीर में प्रवेश करता है तो शरीर यह पहचान जाता है कि बीमारी पैदा करने वाले कीटाणु शरीर में आ गये हैं। शरीर उनकी बनावट को समझता है एवं उनसे लड़ने की कोशिश करता है। साथ ही साथ शरीर उन कीटाणुओं से लड़ने की कीटाणु विशेष क्षमतायें पैदा करने की कोशिश करता है।
इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है एवं यदि शरीर द्वारा सामान्य लड़ने की क्षमता से एवं कीटाणु विशेष लड़ने की क्षमता से कीटाणुओं को मारे जाने से पहले ही यदि कीटाणु शरीर में अपना प्रभाव डाल पाते हैं तो इससे शरीर में बीमारी पैदा हो जाती है।
बिमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं को ऐसे रूप में बदल दिया जाता है जिससे उनकी बीमारी पैदा करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है। यहाँ इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उनका रूप इतना न बदल जाये कि शरीर यह पहचान ही न सके कि यह किस बिमारी के कीटाणु हैं।
टीके को शरीर में प्रवेश कराये जाने पर शरीर यह समझता है कि बीमारी पैदा करने वाले कीटाणु शरीर में आ गये। वास्तव में यह कीटाणु शरीर को नुकसान पहुँचाने के काबिल नहीं होते हैं। शरीर उनकी बनावट को समझता है एवं उनसे लड़ने की कीटाणु विशेष क्षमतायें पैदा कर लेता हैं।
जब किसी बीमारी के कीटाणु वास्तव में शरीर में पहुँच जाते हैं तो शरीर टीके से प्राप्त कीटाणु विशेष लड़ने की क्षमता को तुरन्त अपनी स्मरण शक्ति से निकालकर उसका उपयोग करता है एवं उन कीटाणुओं को जल्दी एवं ज्यादा कुशलता से मार देता है।
इससे बीमारी होने की सम्भावना कम हो जाती है एवं बीमारी हो ही जाये तो इस बीमारी से होने वाले नुकसान की सम्भावना कम होती है।
हिमोफिलस बीमारी एक तरह की कीटाणु (बैक्टीरिया) से होती है जिसको हिमोफेलिस, इन्फ्लुएंजा टाइप बी (हिब) कहते हैं।
शिशुओं एवं बच्चों में मैनिन जाइटिस (दिमागी बुखार) होने का मुख्य कारण हिब है, यह एक ऐसा संक्रमण है जो मस्तिष्क तथा रीढ़ की हड्डी पर हमला करता है। अक्सर ५ से कम वर्ष के बच्चोँ को हिब के संक्रमण का खतरा होता है, लेकिन ६ से १८ महीने के बच्चों में हिब मैनिन जाइटिस होने की सम्भावना सबसे अधिक होती है।
हिब मेनिन जाइटिस के शिकार होने वाले बच्चों में से ५ प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त उपचार मिलने की बावजूद, ये मर जाते हैं। जीवित रहने वाले बच्चों में से २५ प्रतिशत से ४० प्रतिशत बच्चों का मस्तिष्क स्थायी रूप से विकलांग हो जाता है। इनकी सुनने की शक्ति कम हो जाती है।
हिब बीमारी से कई अन्य गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं जैसे जोड़ों का संक्रमण, हड्डियों और त्वचा का संक्रमण जो आमतौर पर चेहरे पर होता है। हिब के परिणामस्वरूप श्वांस सम्बन्धी संक्रमण भी हो सकता है, जैसे न्यूमोनिया यानी फेफड़ों का संक्रमण और एपिग्लोसाइटिस यानी गले का संक्रमण, जिससे गंभीर श्यांस अवरोध पैदा हो सकता है।
हिब एक छूत की बीमारी है। कुछ बच्चों की नाक के पीछे और गले में हिब के कीटाणु मौजूद होते हैं, लेकिन फिर भी इनमें बाहर से इस बीमारी के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। अपनी खांसी या छींक के द्वारा ये संक्रमित बच्चे यह बीमारी दूसरों तक फैला देते हैं। इसके अलावा चम्मच, छुरी या किसी अन्य सतह अथवा हाथ पर मौजूद बलगम के द्वारा भी ये बीमारी फ़ैल सकती है।
शिशु देखभाल केंद्र (क्रश) नर्सरी स्कूल और प्ले ग्रुप में रहने वाले बच्चों को यह बीमारी लगने का खतरा अधिक होता है क्योंकि ये हिब संक्रमित बच्चे के बहुत ही नजदीकी सम्पर्क में होते हैं। यह बीमारी परिवार के ऐसे हिब संक्रमित सदस्य से भी फ़ैल सकती है, जिनमें हिब के कीटाणु तो मौजूद होते हैं, लेकिन ये बीमारी दिखाई नहीं देती है।
दरअसल, हिब की बीमारी का हमला इतनी तेजी से होता है कि मरीज को पर्याप्त उपचार उपलब्ध कराने के पहले ही घातक एवं गंभीर जटिलतायें पैदा हो जाती है। इसलिए इससे बचने का सही उपाए यही है कि बीमारी से पहले ही इसकी रोकथाम की जाए।
खुशकिस्मती से अब हिब के रोग निरोधक टीके उपलब्ध हैं। इसके द्वारा आप अपने बच्चे को इस बिमारी के होने की संभावित उम्र के दौरान पूरी तरह सुरक्षित बना सकते हैं।
मोटापा ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में अत्यधिक मात्रा में चर्बी (फैट) जमा हो जाती है, जो हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालती है।
१. अपने बच्चे को संतुलित व पौष्टिक आहार दें जो कि बच्चे के विकास के लिए आवश्यक है। बच्चों को बाहर के खाद्यपदार्थ जैसे बर्गर , चाउमिन, पिज्जा (जंक फ़ूड) से दूर रखें।
२. नियमित रूप से व्यायाम के लिए प्रोत्साहित करें। परिवार के सभी सदस्य अपने जीवन में अनुशासन लाएं, जिससे इसका असर उनके बच्चों पर पड़े जैसे समय से पढ़ाई, खेल-कूद, समय पर खाना, सोना व टी.वी. देखना।
३. बच्चे अपने माता-पिता को देख कर सीखते हैं। माता-पिता को स्वयं स्वस्थ आहार और जीवन शैली का अदार्श सेट करना चाहिए।
संतुलित आहार वह आहार है जिसमें:
- भोजन में पाए जाने वाले आवश्यक पदार्थ जैसे कार्बोहायड्रेट, प्रोटीन, वसा व ऊर्जा सही मात्रा में हो।
- सभी भोज्य वर्गों में से दिन भर के खाने में कुछ न कुछ जरूर शामिल किया गया हो।
- सभी भोज्य पदार्थ सही मात्रा में हों।
परिवार के एक आदमी के लिए, ५०० ग्राम वसा महीने भर में इस्तेमाल होनी चाहिए। अगर परिवार में ५ सदस्य हैं तो:
- समस्त परिवार के लिए महीने भर में २.५ कि.ग्रा. से ज्यादा वसा इस्तेमाल न करें।
- २.५ कि.ग्रा. में से १/४ भाग घी और मक्खन इस्तेमाल करें।
- बाकी ३/४ भाग रिफाइन्ड या सरसों का तेल।
- तेज-तेज चलना, धीरे-धीरे दौड़ना (जॉगिंग), कूदना, रस्सी कूदना, चढ़ना (क्लाइम्बिंग)
- साइकिल चलना, स्केटिंग, टेनिस, फुटबॉल, बैडमिंटन, हॉकी, वॉलीबॉल, बास्केट बॉल आदि।
- तैरना, योगा, नाचना, एरोबिक्स, आदि।
बच्चों के मोटापे का इलाज, एक अनुभवी व योग्य चिकित्सक दल ही कर सकता है। आपके बच्चे को विशेषज्ञ के मार्गदर्शन की जरुरत है। जैसे डॉक्टर, आहार-विशेषज्ञ, शारीरिक क्रिया अध्यापक, व मनोविज्ञानिक। आपको उनसे लगातार संपर्क बनाये रखना होगा। क्लीनिक में नियमित रूप से आयें और मार्गदर्शन के अनुसार अमल करें। खानें का,शारीरिक क्रिया व वज़न का रिकॉर्ड रखें। विशेषज्ञ की देखभाल के साथ-साथ, परिवार का सहयोग भी मोटापे के इलाज में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
कुछ बच्चों में अगर विशेषज्ञों का मार्गदर्शन व जीवनशैली में परिवर्तन वज़न कम करने में सफल न हो, तब कुछ दवाईयां इस्तेमाल की जाती हैं। लेकिन ज्यादातर ये सभी दवाईयां १६ साल से कम बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती हैं।
आपके डॉक्टर कुछ टेस्ट करने के लिए बताते हैं, जो कि मोटापे का कारण या उससे होने वाली समस्याओं को जानने में सहायक हो सकते हैं, जैसे:
- थाईरॉइड प्रोफाइल
- खून में चीनी की मात्रा
- लिपिड प्रोफाइल
- जिगर व गुरदे की जांच
दूसरे कुछ और टेस्ट जैसे सीरम, कोर्टिसोल, एचबीए 1 सी, प्लाज़्मा इन्सुलिन, ओरल ग्लूकोज़, टॉलरेन्स टेस्ट, जिगर व ओवरी का अल्ट्रासाउंड भी कराये जा सकते हैं।
सामान्य रूप से बच्चे को दो से चार किलो वज़न महीने भर में घटाना चाहिए। जब तक बच्चे का वज़न अपनी आयु के अनुसार सामान्य रेंज में न आ जाये, तब तक उपचार जारी रखना चाहिए। उपचार के उपरान्त भी स्वस्थ जीवन शैली को जारी रखना चाहिए।