Dr. TR. Yadav (For the best paediatric services)

ऑटिज्म .......एक महत्वपूर्ण समझ और जागरूकता की आवश्यकता ऑटिज्म एक ऐसी न्यूरो डाइवर्सिटी है जो बच्चों में उनके सामाजिक व्यवहार , संचार और अन्य विकासात्मक क्षमताओं को प्रभावित करता है । यह एक स्पेक्ट्रम है यानी इसके लक्षण अलग-अलग बच्चों में अलग-अलग ढंग से दिखाई पड़ते हैं । हर बच्चा जो ऑटिज्म से प्रभावित है उसके लक्षण और आवश्यकता अलग-अलग हो सकते है ।


समाज में इस विषय पर जानकारी और समझ को बढ़ावा देना आवश्यक है ताकि प्रभावित बच्चों को बेहतर तरीके से सहायता मिल सके ।


ऑटिज्म को लेकर समाज में बहुत बड़ी भ्रांति है , अक्सर इसे एक बीमारी की तरह लिया जाता है और जब बीमारी की तरह लिया जाता है तो इसके इलाज में तरह-तरह की दवाइयां और उपचार के अन्य साधनों का उपयोग किया जाता है और बस यही से इसके इलाज की गति गलत दिशा में जाने लगती है ।


तो आज हम आपको यह बताना चाहते हैं की ऑटिज्म एक न्यूरो डाइवर्सिटी है यानी एक अलग तरह का ब्रेन।


आधुनिक शोधों से यह पता चला है कि 70 प्रतिशत ऑटिज्म के बच्चे जब वयस्क होते हैं तो उनमें बोलने की समस्या नहीं होती है यानी 70 प्रतिशत बच्चे स्वयं ही बिना किसी इलाज ( थिरैपी ) के बोलने लगते हैं ।
परन्तु यदि ऑटिज्म के बच्चों का सही समय पर ( 2 से 8 वर्ष ) हस्तक्षेप नहीं किया गया तो उनका बोलना एजेंडा बेस्ड हो जाता है यानी बात कोई भी चल रही हो , बात किसी भी मुद्दे पर चल रही हो परन्तु ऑटिज्म का बच्चा / आदमी वही बोलेगा जो उसके दिमाग में चल रहा होगा , यदि उसकी बातों पर उसके आस पास के लोग ध्यान नहीं दिए तो वह अपने आस पास के लोगों की बातों में रुचि नहीं दिखाएगा या वहां से दूर चला जाएगा । ऐसा उनकी एक बड़ी समझ ना विकसित होने के कारण होता है , वह हमेशा दूसरों के मुद्दों , दूसरों की भावनाओं को समझने में विफल हो जाते हैं और ऐसी अवस्था में उनका दूसरों से एक स्वस्थ सामाजिक संबंध नहीं बन पाता है , और जब ऐसा नहीं हो पता तो ऑटिज्म के लोगों में भय और चिंता इतना ज्यादा विकराल रूप धारण कर लेता है कि ऑटिज्म के 80% लोगों को वयस्क अवस्था में मानसिक रोग विशेषज्ञों से मिलकर दवाइयां लेनी पड़ती है और अपने को मानसिक तौर पर स्वस्थ रखने के लिए पूरे उम्र दवाइयां पर निर्भर रहना पड़ता है ।


आधुनिक शोधों से यह भी पता चला है कि यदि ऑटिज्म के बच्चों का समय पर ( 2से 8 वर्ष ) हस्तक्षेप नहीं किया गया तो 14% बच्चों में साइकोसिस ( मनोविकृति / पागलपन ) की एक मानसिक बीमारी हो जाती है ।


आधुनिक शोधों से यह पता चला है कि यदि बच्चे को मिर्गी की बीमारी है और जिसका कारण जेनेटिक है तो ऐसे बच्चों में भी ऑटिज्म के लक्षण आ सकते हैं या किसी बच्चे के जन्म के समय ही ब्रेन क्षतिग्रस्त हो गया जिसे सेरेब्रल पाल्सी बोला जाता है तो इनमें भी ऑटिज्म का रिस्क होता है ।



ऑटिज्म के सटीक कारण अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाए हैं , शोध से यह पता चला है कि ऑटिज्म के विकास में अनुवांशिक और पर्यावरणीय कारक दोनों का योगदान हो सकता है । कुछ बच्चों में ऑटिज्म का पारिवारिक इतिहास देखा गया है , जबकि अन्य मामलों में माता-पिता की उम्र , गर्भावस्था में संक्रमण और अन्य कारक भी इसे प्रभावित कर सकते हैं ।


सामान्य तौर पर ( 70 प्रतिशत मामलों में ) ऑटिज्म का मतलब यह नहीं कि यह ब्रेन आम जनमानस के ब्रेन से खराब है , इसका मतलब यह नहीं कि इस ब्रेन के लोग जीवन में कुछ कर नही सकते , इसका मतलब यह भी नहीं होता कि इनका ब्रेन क्षतिग्रस्त है ।


बल्कि इसका मतलब यह है कि एक ऐसा अनोखा ब्रेन जो देखकर ( VISUAL UNDERSTANDING ) ज्यादा समझता है, इसका मतलब यह होता है कि ऑटिज्म का बच्चा जो भी एक बार देख लेता है तो उसे तुरंत समझ लेता है परंतु यदि वही बात बोलकर समझाया जाए तो बच्चा समझने में विफल हो जाता है, इसका मतलब यह भी होता है की ऑटिज्म का बच्चा जो कुछ भी अच्छा या बुरा देख लिया है या उसके साथ हो गया है, वह बात उसको भूलने में बहुत लंबा वक्त लग जाता है ।


एक ऐसा अनोखा ब्रेन जो भी अच्छा या बुरा देख लिया है तो उसे लंबे समय तक याद रखेगा ( STRONG VISUAL MEMORY) , ऐसा अनोखा ब्रेन चाहता है कि उसे कुछ भी समझाना है तो दिखा कर समझाया जाए ना कि बोलकर ।


ऐसा अनोखा ब्रेन किसी भी चीज की गहराई में जाकर उसे समझना चाहता है ( STRONG ATTENTION TO DETAIL ) , इसका मतलब यह होता है कि ऑटिज्म का बच्चा किसी भी खिलौने को देखेगा तो पूरे खिलौने से ना खेल कर वह इस बात में दिमाग लगाने लगता है कि उस खिलौने में छोटी-छोटी चीज कैसे लगाई गई है या उनमें जो छोटी-छोटी चीज लगी है उन पर ज्यादा गौर करने लगता है और यह जानने का प्रयास करने लगता है कि खिलौने में लगी हुई छोटी-छोटी चीज काम कैसे कर रही है यानी ऑटिज्म का ब्रेन एक रिसर्च ओरिएंटेड ब्रेन होता है ।


ऐसा अनोखा ब्रेन प्रत्येक क्रियाकलाप में चयनात्मक ( SELECTIVE) होता है। इसका मतलब बच्चा सभी खिलौने को नहीं पसंद करेगा बल्कि वह किसी एक ही खिलौने को ज्यादा पसंद करेगा और उसी से बार-बार खेलेगा , बच्चा सभी कपड़ों को नहीं पसंद करेगा और जिस कपड़े को पसंद करेगा तो उसे ही बार बार पहनना चाहेगा, सभी भोज्य पदार्थों को नहीं पसंद करेगा परंतु जिस भी भोज्य पदार्थ को पसंद करेगा तो उसे ही बार बार खाना चाहेगा ।


बच्चा सभी आवाज पर प्रतिक्रिया( response ) नहीं देगा लेकिन जो आवाज उसे पसंद है चाहे वह दूर से ही क्यों ना आ रही हो , चाहे वह आवाज बहुत हल्की ही क्यों ना हो उसके प्रति तुरंत प्रतिक्रिया ( response ) देगा


ऐसा अनोखा ब्रेन नहीं चाहता कि उससे जबरदस्ती करके कुछ भी करवाया जाए , नहीं चाहता कि उसे जबरदस्ती सिखाया जाए , पढ़ाया जाए , नहीं चाहता कि उसके सामने कोई ऊंची आवाज में बात करें , नहीं चाहता कि उससे सीधी निगाहें मिलाकर कोई बात करें , ।


परन्तु अफसोस की बात है कि हमारे देश में सामान्य परवरिश के तहत बच्चों को खूब रोक टोका जाता है , यदि बच्चा नहीं मानता तो उसे जोर से डाटा जाता है और यदि इसके बावजूद भी बच्चों ने नहीं सुना या रुका तो उसकी पिटाई कर दी जाती है । इस तरह के कठोर परवरिश के कारण हमारे देश में ज्यादातर ऑटिज्म के बच्चे जब बड़े होते हैं तो वह मानसिक विकार से ग्रसित हो जाते हैं ।


बल्कि वह चाहता है कि सभी उसकी भावनाओं का सम्मान करें , सभी उससे सीखें ना कि सिखाएं यदि अभिभावक ऑटिज्म में सुधार चाहते है तो उन्हें ही ( RESPONSIBLE AND RESPONSIVE PARENTING) जिम्मेदार और उत्तरदाई परवरिश का तरीका सीखना होगा ।


आटिज्म में ( INTERVENTION) हस्तक्षेप का उद्देश्य यह होना चाहिए कि बच्चों से कोई जोर जबरदस्ती ना हो , जिससे वह अपने चारों तरफ के वातावरण और उसमें उपस्थित लोगों के प्रति लगाव विकसित ( DEVELOPMENT OF SOCIAL ATTACHMENT ) कर सके ...................जिससे वह लोगों से सामाजिक संपर्क करने में भय का अनुभव न करें और जब बच्चा ऐसा करने में सक्षम हो जाता है तो उसकी स्वतह ही अपने चारों तरफ के वातावरण और वातावरण में उपस्थित लोगों के प्रति ध्यान बढ़ने लगता है ( DEVELOPMENT OF LISTENING AND ATTENTION) और जैसे ही बच्चा लोगों को ध्यान से सुनने लगता है तो वह समझने भी लगता है और जैसे ही बच्चा समझने लगता है तो वह स्वातः ही बोलने लगता है।


इसलिए ऐसे अनोखे ब्रेन के साथ हस्तक्षेप ( INTERVENTION) का मूल उद्देश्य यह होना चाहिए कि बच्चों के अभिभावक अपनी इच्छाओं को दरकिनार करके बच्चों की कठिनाइयों को समझने की कोशिश करें और उसी के अनुरूप अपने घर के वातावरण और अपने व्यवहार में परिवर्तन लाएं , यानी चाइल्ड लेड पेरेंटिंग ( CHILD LED PARENTING) किया जाए तो बच्चे में सबसे ज्यादा बदलाव देखने को मिलते हैं ।


ऑटिज्म में हस्तक्षेप ( INTERVENTION) का लक्ष्य यह होना चाहिए कि जब बच्चा बड़ा हो तो वह दूसरे की भावनाओं के अनुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन कर सके, ( EMOTIONAL RECIPROCATION) कर सके, बच्चा परिस्थितियों के अनुरूप अपने को बदल सके ( ADJUSTING AND FLEXIBLE BEHAVIOUR ) , अपनी बात पर अड़ा न रहे और बहुत ज्यादा उसमें रिपीट करने की आदत जिसे ऑब्सेशन कहते हैं ना हो


ऐसा लक्ष्य रखकर जब हम एक चाइल्ड लेड पैरेन्टिंग ( CHILD LED PARENTING) करते हैं तो बच्चे में सबसे ज्यादा बदलाव देखने को मिलते हैं


ऑटिज्म के प्रति समाज में जागरूकता और सहानभूत की आवश्यकता है । परिवार , शिक्षक और समाज के सभी वर्गों को इसके बारे में समझना और सहायक वातावरण प्रदान करना चाहिए । ऑटिज्म के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए स्कूलों और समुदायों में अभियान चलाना , इस पर बात करना और सही जानकारी साझा करना आवश्यक है । ऑटिज्म से प्रभावित बच्चे भी समाज का हिस्सा है और वह भी अपने विशेष गुणों और क्षमताओं के साथ जीवन में सफलता हासिल कर सकते हैं । हमें बस उनकी जरूरत को समझते हुए उनके साथ मिलकर चलना है । डॉ टी आर यादव ( Developmental pediatrician )|


डॉ टीआर यादव

MBBS, MD - Pediatrics